राजनीती में छोटी से छोटी गलती बडे से बड़ा नुकसान कर देती है। नुकसान उसमें स्वयं उम्मीदवार का भी होता है और पार्टी का तो होता ही है। फिर यह बिमारी की शुरुआत नाराजगी के संक्रमण से शुरू होती है। नेता पार्टी की किसी बात पर नाराज हो कर विद्रोह कर देता है और गुटबाजी की बिमारी से बिमार हो जाता है।
झाबुआ जिले में राजनीती की कोई नई कहानी नहीं है। बस प्रत्याशियों के चेहरे बदल रहे है मगर हो वैसा ही रहा है जैसे पिछ्ले कई सारे चुनावों में किसी ने किसी को हराने के लिये चाल चली थी।
पिछ्ले चुनाव में देखे तो जो रिकार्ड सन 2013 का है उससे स्पष्ट होता है कि पार्टी के होते हुये भी पार्टी प्रत्याशी को हराने के लिये पार्टी प्रत्याशी के सामने पार्टी का वो नाराज़ व्यक्ति चुनाव में खड़ा हो जाता है। जिसकी वजह से जीत के किनारे पर पहुंचा प्रत्याशी उस किनारे पर आ कर डूब जाता है।
विधानसभा 2013 में ऐसे ही गलती कांग्रेस ने की थी जिसका परिणाम यह निकला कि झाबुआ विधानसभा पर भाजपा ने जीत का परचम लहराया था। उसके बाद विधानसभा 2018 में भी कांग्रेस ने फिर से उसी गलती को दौबारा दोहराया। नतिजा भाजपा ने फिर बाजी मारी। लेकिन 2019 में झाबुआ विधायक ने विधायकी छोड़ संसदीय उम्मीदवार के लिये खुद को मजबूती से खड़ा किया और झाबुआ में उप चुनाव की घोषणा हो गयी। जिस गलती को कांग्रेस ने दो बार कर के अपना पत्ता कट किया था। उसी गलती को भाजपा ने कर दी और उपचुनाव में कांग्रेस का झण्डा लहराया।
जिले की तीनों सीट पर कांग्रेस का कब्जा है, और भाजपा में गुटबाजी का यही आलम रहा तो सम्भवत: जिले में कांग्रेस का विकल्प फिर से जानाधार बनेगा।
युं तो गुटबाजी कांग्रेस में भी हो रही है जो हर तरफ से कांग्रेस को कमजोर कर रही है। झाबुआ विधानसभा क्षेत्र की बात करे तो उप चुनाव में जेवियर मेड़ा कांग्रेस के कान्तिलाल भूरिया के साथ खड़ा नहीं होता तो उप चुनाव की छतरी पर कांग्रेस का रंग नहीं होता। उस वक्त भी दावेदारी में जेवियर मेड़ा की प्रबलता पर कोई प्रश्न नहीं था लेकिन पुराने चावल के अनुरोध पर शर्त पर जेवियर मेड़ा के नाम की घोषणा नहीं हुई।
इस बार भी जेवियर मेड़ा अपनी तैयारियों पर खरा उतरने के लिये कमर कस चुके है लेकिन लचीलेपन में लालच की लार गिरी तो कांग्रेस को भी बहुत ज्यादा नूकसान हो सकता है।
पेटलावद में घोषित भाजपा प्रत्याशी का अंदरूनी विरोध होकर भितरघात का संकट मंडराता दिखाई दे रहा है।
विधानसभा क्षेत्र थांदला में भी सूखी लकड़ी में आग लगने की सम्भावना पूरी पूरी लग रही है।
हालांकि, सुगबुगहत तो यह है कि कुछ असहमत भाजपाई मन में कुछ और रखते है और मुख में कुछ और ही रखते है वें भाजपा के घोषित प्रत्याशी के आंतरिक विरोध में खेल को खेल रहे हैं। उन्हीं से जुड़ा हुआ एक भाजपाई जो इस बार भाजपा से विधानसभा की टिकट का दावेदार माना जा रहा था वो निर्दलीय उम्मीदवार बन कर भाजपा में भितरघात करेगा।
बहरहाल कठोरता की कडवाहट को प्रसन्नता से संतुलित किया जा सकता है इस बार ऐसे कार्य न तो कांग्रेस कर पा रही है और न ही भाजपा कर पार रही है और यदि ऐसा ही रहा तो प्रशासन की मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान व्यर्थ हो सकता है, क्युंकि असमंजस में वोटर कहीं नोटा का बटन न दबा दे और वो कहावत चरितार्थ हो जाये।
नाचे कूदे बान्दरि
ने
खीर खाए फकीर।
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